गुरुवार, 20 अगस्त 2009

वे डरते हैं......कि लोग डरना न बंद कर दें....

वे डरते हैं...कि लोग डरना न बंद कर दें...
अरविन्द मूर्ति

"मऊनाथभंजन" जो अब जिला बनने के बाद "मऊ" के नाम से जाना जाता है | घनी आबादी वाला ताने बाने का शहर है | जिसके बाशिंदों में मजहबी लिहाज से इस्लाम को मानने वालों की तादात थोड़ी ज्यादा है | इसी वजह से सरकारी और फिरकापरस्ती की सोंच और जुबान में इस शहर को संवेदनशील कहा जाता है | जबकि संवेदनशीलता का वास्तविक अर्थ है जिन्दादिली, इसी जिन्दादिली का जीता जागता सबूत है २९ जुलाई,०९ की घटना, रोज मर्रा की जिंदगी में आम आदमी को, जिसे कदम-कदम पर पुलिस की भ्रष्टाचारी व दमनकारी कार्यवाईयों के आगे झुकना पड़ता है | उससे ऊब कर जब जनता उठ खड़ी हुई तो हंगामा क्यों बरपा ? २९ जुलाई,०९ की सुबह भी करघे की खटपट, घंटे-घड़ियाल, अजान की आवाजों के साथ हुई और शहर के बाशिंदें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के लिए रोजी-रोटी की तलाश में निकल पड़े | वक्त की सुई चलती रही और समय बढ़ने के साथ-साथ शहर का ही जिला मुख्यालय होने से जिले के हर हिस्से से लोगों के आने का सिलसिला भी बढ़ा, और दिन के सबसे व्यस्ततम समय ११.३० बजे भीड़-भाड़ वाले आज़मगढ़ तिराहे पर खड़ी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की शान पुलिस जो तथा कथित आजादी के ६२ वर्षों बाद भी अंग्रेजों के अट्ठारह सौ एकसठ (१,८६१) के बनाये कानून से चलयी जा रही है | जिसने अपनी कर्तब्य निष्ठां (बेईमानी) का पूरी ईमानदारी से पालन करते हुए "नो एंट्री" समय में चौदह टायरोंवाली ट्रक को शहर में जाने की इजाजत देते हुए पुलिस का एक जवान ट्रक पर चढ़ चढ़कर ट्रक ड्राईवर से पैसों की मांग करने लगा मात्र २० रुपया न देने की जिद पर अड़े ट्रक ड्राईवर ने पुलिस जवान को धक्का मारा जिससे वह नीचे गिर पड़ा, ड्राईवर ट्रक लेकर बेतहासा भाग चला | हलीमा अस्पताल के सामने एक ऑटो-रिक्शा व मारुतीकार को धक्का मारते हुए आज़मगढ़ जाने वाली सड़क से मिर्जाहादीपुरा जा पहुंचा वहां से वह शहर के बाहर आज़मगढ़ की तरफ न जाकर मिर्जाहादीपुरा चौक से शहर में घुस गया |

सवाल दर सवाल--मिर्जाहादीपुरा चौक पर २४ घंटे ड्यूटी पर तैनात रहने वाली पुलिस ने "नो एंट्री" जोन में जाने वाली इतनी बड़ी ट्रक को जो एंट्री के समय भी शायद ही अन्दर जा सकती हो कैसे जाने दिया ? अगर ट्रक अन्दर घुस गया तो पुलिस वालों ने आगे के पुलिसबूथ पर तैनात पुलिस सहकर्मियों को आगाह क्यों नहीं किया ? साथ ही अपने पुलिस के आला-अफसरों को इसकी जानकारी क्यों नहीं दी ? मिर्जाहादीपुरा से बंधे तक ३ किलोमीटर की दूरी तय करने वाले ट्रक को जो शहर को रौंदता हुआ गया बीच में न रोक पाने वाली नाकाम पुलिस यहाँ तक कि इस बीच जिला प्रशासन की नाक और पुलिस का अंतिम किला (कोतवाली) जिसको बचाने के लिए ही पुलिस ने आम लोगों पर गोली चलाई उसके सामने पर भी ट्रक गुजरी, आखिर पुलिस क्या करती रही ? यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है |

वर्निंग ट्रेन बनकर.......गुजरे ट्रक ने शहर की लाइफ लाइन मानी जाने वाले सड़क पर पैदल रिक्शा, ऑटो, साइकिल, मोटर साइकिल, ठेला, फुटपाथों को लहू लुहान कर दिया और इस दरम्यान ट्रक से कुचल कर १. वैद्य नन्हकू राम २. संदीप पाटिल ३. मसीहुत जमां ४. आयशा खातून इन चार लोगों की मौत और लगभग ३० लोग जख्मी हो चुके थे | इस संवेदनशील शहर के बाशिंदे मजहब और जाति का भेदभुला कर एक दूसरे की मदद में तल्लीन हो चुके थे | पूरा शहर मायूशी में डूब गया था पर हंगामें की शुरुआत किसने की और कहाँ हुयी यह बहुत ही संदेहास्पद बना हुआ है और अन्य घटनाओं की तरह अफवाहों का दौर चलता रहा | सच जिन्दा रहे का उदघोष करने वाले दैनिक अख़बार अमर उजाला, ३० जुलाई 09 वाराणसी संस्करण की माने तो,"बवाल तब शुरू हुआ जब ट्रक पुलिस भर्ती का फॉर्म लेने के लिए डाकघर पर लाइन लगाये अभ्यर्थियों को धक्का मारते हुए निकल गया | नाराज अभ्यर्थियों ने कोतवाली पर पथराव कर दिया | पीछे से बाजार के लोग भी वहां पहुँच गए " और आम लोगों का गुस्सा पुलिस के खिलाफ़ फ़ुट पड़ा और यह आक्रोश पूरी तरह से पुलिस की सम्पत्ति पर रहा, और शहर के अन्दर बने पुलिस बूथों को लोगों ने तोड़ डाला मुख्य डाकघर की आगजनी भी संदेहास्पद है | इसमें पुलिस की भूमिका संदिग्ध है | प्रत्यक्षदर्शी लोग पुलिस के आतंक से कुछ भी बताने को तैयार नहीं हैं | डाकघर का हमेश बंद रहने वाला गेट अवश्य तोड़ा गया है | वह भी कोतवाली से हुए फायरिंग और गोली लगने से हुयी मौतों के बाद | क्योंकि शहर के अन्दर सभी बैंक और डाकघर पूरी तरह सुरक्षित रहे हैं |

पुलिस की घिनौनी साम्प्रदयिक चाल नहीं चली-पुलिस प्रशासन ने अपनी नाकामी छुपाने के लिए लोगों के गुस्से को साम्प्रदायिक रंग में रंगने की भरपूर कोशिश की यहाँ तक कि तत्कालीन एसपी ने बयान दे डाला कि मैंने दंगा रोंका है | जबकि हिन्दू-मुस्लिम एक जुट होकर सिर्फ पुलिस के खिलाफ़ सड़क पर उतरे कहीं भी किसी ने किसी की दुकान पर एक नजर नहीं देखा न ही किसी का कुर्सी टेबल, बोर्ड छुआ | आम लोगों के वाहन भी शहर में सही सलामत रहे | यह गुस्सा हिन्दू-मुस्लिम की एकता और मजबूती की मिशाल बन गया | लोगों का एक दूसरे पर भरोसा, विश्वाश का एहसास बहुत गहरा हुआ |

पुलिस के खिलाफ़ इस तरह का आक्रोश 26 मई, २००५ को भीटी में युवाव्यापारी सहित ३ लोगों की हुई हत्या के बाद भी दिखा था | जब लोगों ने भीटी पुलिस चौकी को ध्वस्त कर दिया | पुलिस के उच्च अधिकारियों के वाहन फूंक डाला था |

कानून दिशा-निर्देशों का खुला उलंघन करते हुए पुलिस ने गोली चलाई | प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक पुलिस ने न तो आंसू गैस के गोले छोड़े न रबर की गोलियां चलाई, पानी की बौछार नहीं करने की बात तो खुद पुलिस ने केंद्र को भेजी रिपोर्ट में कहा | लेकिन २५ रबर की गोली, ३० आंसू गैस के गोले, १४ राउंड फायर रायफल से, १ गोली रिवाल्वर से चलना बताया गया है | लेकिन लोगों को न तो आंसू गैस के खाली गोले मिले न रबर की गोलियां मिलीं | मिलीं तो सिर्फ लोगों के शरीर में गोलियां या उनके निशान जो दीवालों पे, मस्जिद की दीवालों में, दुकानों के शटर में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं | कोतवाली से लेकर हट्ठी मदारी चौकी मिर्ज़हादीपुरा के दक्षिण टोला थाने तक गोलिया चली पुलिस ने सारे दिशा निर्देशों का खुला उलंघन करते हुए लोगों पर गोलियां चलाई | पुलिस की गोली से मरने वाले ४ लोगों को गोलियां क्रमशः गले में, सीने में, पेट में, और कमर से ऊपर ही लगीं जो कानूनन गलत है |

कानून का पालन करने वाले खुद कानून का उलंघन करें तो इन्हें दोहरी सजा मिलनी चाहिए | इन गोली चलाने वालों को चिन्हित कर उनके ऊपर हत्या का मुकदमा चलाना ही न्याय संगत होगा और लोकतंत्र की मजबूती का आधार बनेगा, तथा पूरे देश में होने वाले धरना, प्रदर्शन, आन्दोलन, जन अक्रोशों पर चलने वाली गोली मर्यादित होगी | पुलिस की गोली से मरने वालों की एक झलक यु तों देश भर में पुलिस की गोली का शिकार, निरपराध, गरीब मजदूर ही होता है | वही यहाँ भी हुआ |

मो. अज़मल उम्र २५ साल रिक्शा चलाकर पूरे परिवार का पेट पालने वाला एक मात्र कमाऊ सदस्य जो रिक्शा लेकर इस शहर में रहा | अनवर जमाल उम्र ३० साल, पॉवर-लूम चलाते थे, हंगामें में घर भाग रहे थे, गोली लगी | शमशाद, दिहाडी मजदूर, मजदूरी करके लौट रहे थे, गोली लगी | मो. जाहिद उम्र १८ वर्ष, पढाई करके घर लौट रहे थे, गोली लगी और इन चारों की मौत हो हुई | इसी तरह के २० लोग गोली लगने से घायल हुए इनमें कई लोगों की हालत अभी भी गम्भीर बनी हुई है | कुछ लोग तो ऐसे घायल हैं जो जिन्दा रहकर भी मरे हुए रहेंगे | यह लोग आजीवन विकलांगता के शिकार होकर रह जायेंगे | ऐसे निरपराध लोगों को देख कर राजेश जोशी की ये पक्तियां बरबस याद आती हैं-
"इस समय /सबसे बड़ा अपराध है /निहत्थे और निरपराध होना /जो अपराधी नहीं होंगे /मारे जायेंगे |"

पुलिस उत्पीड़न का सिलसिला जारी ----------२९ जुलाई,२००९ को मऊ गोली कांड के बाद से ही कानून व्यवस्था की कमजोरी को सरकार अपनी तरफ से छुपाने की भरपूर कोशिश कर रही है | पुलिस सहित पूरे प्रशासनिक अमले को बचाने में लगी है | मात्र प्रतीकात्मक तौर पर तत्कालीन एसपी व गोली चलाने का आदेश देने वाले एसडीएम का तबादला कर दिया गया और ऊपर से एडीजी कानून व्यवस्था बृजलाल ने धौंस दी कि उपद्रियों पर गैंगस्टर और रासुका लगाया जाय जिससे तमाम लोग जो पुलिस की गोलियों से घायल हुए है अपना इलाज चोरी चुपके आसपास के निजी चिकित्सालयों में अपनी तंग हाली के बाद भी जीवन बचाने के लिए करा रहे हैं | क्योंकि स्थानीय स्तर पर पुलिस ने यह हौवा खडा कर दिया कि इन्ही घायल उपद्रियों पर बाद में मुकदमा चलेगा | जिससे लोग डर गए और अपने को घायलों की सूची में दर्ज कराना छोड़ दिया | फिर भी ३२ लोगों पर नामजद और १००० अज्ञात लोगों पर तोड़ फोड़ आगजनी और सरकारी सम्पत्ति लुटने का मामला दर्ज किया गया | इसको लेकर आम लोगों में बेहद गुस्सा है | जो कभी भी फ़ुट सकता है |


इस पूरे पुलसिया आतंक के खिलाफ़ तमाम जनसंगठन पीयूसीएल, पीयूएचआर जैसे मानवाधिकार संगठन विरोध कर रहे हैं | जनकवि गोरख पाण्डेय की ये पंक्तियाँ--"वे डरते हैं / तमाम गोला बारूद से / नहीं / वे डरते हैं / तमाम पुलिस फौज से / नहीं / वे डरते हैं कि जिस दिन / निहत्थे, निरपराध, बे जुबान जानता, डरना बंद कर देगी / उस दिन हमें भागना पड़ेगा |"

अरविन्द मूर्ति
(लेखक: जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय, सूचना अधिकार अभियान से जुड़े हैं, सद्भाव और लोकतंत्र की मजबूती के लिए जमीनी संघर्षों में हिस्से दरी के साथ "सच्चीमुच्ची" मासिक पत्रिका के संपादक हैं )

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