जागो कानपुर जागो आदरणीय नागरिको, * क्या बिना पैसे खर्च किये गरीब आदमी को BPL कार्ड मिलता है ? * क्या बिना सुविधा शुल्क दिए सरकारी विभाग/कार्यलयों में आपका जायज काम होता है ? * क्या घूस और भ्रष्टाचार आम हो गया है, इतना की पुलिस से न्यायपालिका, सेनापति व् लोकसभा तक इसका कोढ़ लग चुका है ? * जापान जैसा संपन्न देश को सुनामी ने हिला दिया. क्या ठीक उसी प्रकार भारत को अनेक उपलब्धियाँ भ्रष्टाचार के प्रवाह में बही जा रही है ? * क्या आप भ्रष्टाचार और बेईमानी से उब गये है, और "घूस को घूँसा" देना चाहते है ? तो आगे पढ़िए:- सुप्रसिद्ध समाज सेवक आन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए "जन लोकपाल" की नियुक्ति के लिए अभियान चलाया है. गत ३० जनवरी ( गाँधी जी के शहादत दिवस) को दिल्ली के रामलीला मैदान में हजारों नागरिको ने अन्ना हजारे का समर्थन किया जिसमें प्रबुद्ध नागरिक डा० किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश, शांति भूषण, आर्च विशप विंसेट, अरविन्द केजरीवाल प्रशन भूषण इत्यादी उपस्थित थे. इस मांग को लेकर, और भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए, अन्ना हजारे आगामी 05 अप्रैल 2011 से आमरण अनसन पर बैठेंगे. India Against Corruption संस्था ने उनके समर्थन में अपील किया है की जगह जगह उसी 5 अप्रैल को सांकेतिक अनसन और जनजागरण का आयोजन किया जाय. कानपुर ने इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए कुछ कार्यक्रम तय किये है आप इन कार्यक्रमों में शामिल होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आन्दोलन को गति दे. कार्यक्रम दिन, स्थान और समय : 5 अप्रैल २०११
आपकी प्रतीक्षा में छोटे भाई नरोना, जगदम्बा भाई, कुलदीप सक्सेना, विजय चावला, दीपक मालवीय, विजया रामचंद्रन, अत्तर नईम , मनोज सेंगर, महेश महेश ९८३८५४६९०० |
बुधवार, 30 मार्च 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आन्दोलन को गति दे...........
शुक्रवार, 4 मार्च 2011
सामाजिक कार्यकर्ता नियमत अंसारी की लाठियों से पीट कर हत्या ...
- सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता नियमत अंसारी की रांची में लाठियों से पीट कर हत्या
Ranchi: Condemning the brutal murder of activist Niyamat Ansari, members of different people’s organizations and senior social and human rights activists demanded judicial probe in the case. To protest the murder which took place on 2nd March, dozens of activist gathered at Albert Ekka Chowk here in the evening today and staged a protest march.
Senior social activist and friend of Niyamat Ansari, Gurjit Singh speaking after the march said, “The murder of Niyamat once again reminds us that the social activists are not safe in the state”. Referring to past incidents he demanded, “It is the responsibility of the government to ensure safety and security of those who are fighting against corruption and implementing government schemes and acts”.
United Milli Forum (UMF), Jharkhand’s Co-convener, Afzal Anis demanded that, “The family of Ansari must be given compensation of Rs. 10 lakhs and at-least one family member of the diseased should be granted government job since he has been killed implementing government act”.
After the protest march, a fact-finding team has also been formed to visit the place of crime and investigate the case. The team to be coordinated by civil rights activist Mahtab Alam will be visiting the area on Sunday. The 10-member team comprises of Human Rights Activists, Journalists and Researchers.
According to Gurjit Singh, on Wednesday around 7 pm, Niyamat was picked up from his house and beaten mercilessly. He succumbed to injuries before his relatives could take him to the nearest hospital in Latehar.
Courtesy ...http://www.twocircles.net/
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
कानपुर में जन संगठनों की एक मंच पर आने की पहल
"Asha" Kanpur
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Apna Ghar
B-135/8, Pradhane Gate, Nankari
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शनिवार, 29 जनवरी 2011
लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे
भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून बनवाने के लिए जन प्रदर्शन
किरण बेदी, जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, जे. एम. लिंग्दोह और अरविंद केजरीवाल ने मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक प्रारूप तैयार किया है। इस प्रारूप को लागू करवाने के लिए ‘‘भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान शुरू किया गया है। यह अभियान श्री श्री रवि शंकर, स्वामी रामदेव, स्वामी अग्निवेश, दिल्ली के आचार्य बिशप, श्री विंसेंट एम कोंसेसाओ किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, अन्ना हज़ारे, देविंदर शर्मा, सुनिता गोदरा, मल्लिका साराभाई ने शुरू किया है।
सोनिया गांधी जी ने कुछ दिन पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बनाने की घोषणा की थी। लेकिन सरकार जिस तरह का लोकपाल बनाने जा रही है वह दिखावा मात्रा है। बाकी एंटी-करप्शन संस्थाओं की तरह लोकपाल को भी सिर्फ सलाह देने वाली संस्था बनाया जा रहा है। यानि भ्रष्टाचार पाए जाने पर लोकपाल सरकार को अपने ही मंत्रियों के खिलाफ एक्शन लेने की सलाह देगा। क्या प्रधानमंत्री में यह राजनीतिक साहस होगा कि वह अपने किसी मंत्री के खिलाफ एक्शन ले?
भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता की तरफ से गणमान्य लोगों द्वारा तैयार किये गए लोकपाल कानून को लागू करवाने के लिए 30 जनवरी को हो रहे मार्च में आप भी आइये और अधिक से अधिक लोगों को आने के लिए कहिए।
महात्मा गांधी को इससे बड़ी श्रद्धांजली और क्या हो सकती है।
कानपुरः शंकर सिंह, मो0 9956576907
ए-119, कौशांबी, गाज़ियाबाद - 201010, उ.प्र., फोनः 9717460029
गुरुवार, 27 जनवरी 2011
RTI activist shot at in Sonbhadra
http://ibnlive.in.com/news/up-rti-activist-shot-at-in-sonbhadra/141664-3.html
RTI activist Dr Amarnath Pandey was shot at in Sonbhadra in Uttar Pradesh on Wedneday night.
RTI activist Dr Amarnath Pandey was shot at in Sonbhadra in Uttar Pradesh on Wedneday night.
He has been admitted to Benaras Hindu University hospital.
Dr Amarnath, a homeopath by profession, has exposed alleged corruption in the NREGA work at Bhatauli village by the Block Development Officer and Village Pradhan.
http://www।indianexpress.com/news/rti-activist-shot-after-unveiling-rs-30l.../742785/
रविवार, 26 दिसंबर 2010
यह कैसा न्याय है....?
सत्येंद्र रंजन
विनायक सेन को उम्र कैद सुनाए जाने पर आखिर देश के जनतांत्रिक हलकों में इतनी बेचैनी क्यों है? क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता देश के कानून से ऊपर हैं? अगर किसी को ये सवाल परेशान कर रहे हों, तो उसे विनायक सेन, नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यापारी पीयूष गुहा को सजा सुनाने वाले रायपुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश बीपी वर्मा की इस टिप्पणी पर गौर करना चाहिए- “फिलहाल, जिस तरह आतंकवादी औऱ नक्सली संगठन केंद्रीय अर्धसैनिक बलों, राज्य के पुलिसकर्मियों और निर्दोष आदिवासियों की हत्या कर रहे हैं, देश भर में जिस तरह का आतंक मचा रहे हैं, समाज में जैसा भय और अफरातफरी फैला रहे हैं, उसे देखते हुए यह अदालत आरोपियों के प्रति इतना उदार नहीं हो सकती कि उन्हें न्यूनतम सजा दी जाए।” जाहिर है, अदालत ने आरोपियों को अधिकतम सजा दी। इनमें नारायण सान्याल को प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की पोलित ब्यूरो का सदस्य बताया गया है, जबकि पीयूष गुहा पर माओवादियों के मददगार होने का आरोप है।
मगर विनायक सेन पर क्या आरोप है? उन पर आरोप है कि वो जेल में नारायण सान्याल से मिलते रहे और उनकी चिट्ठियां उन्होंने पीयूष गुहा तक पहुंचाईं। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वे भी माओवादियों की तरह राजद्रोह और राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचने के दोषी हैं। अदालत जिन सबूतों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंची है, उनमें कितना दम है, इस पर अभी उच्चतर न्यायालयों का फैसला आना बाकी है। बहरहाल, अभियोग पक्ष ने जिस तरह की दलीलें कोर्ट में पेश की थीं, उससे यह आम धारणा बनी थी कि उसका पक्ष कमजोर है। बल्कि उसकी कई दलीलें तो हास्यास्पद थीं। जैसे दिल्ली के इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट के प्रयुक्त हुए संक्षिप्त शब्द आईएसआई को अभियोग पक्ष ने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई बता दिया। विनायक सेन की पत्नी एलिना सेन द्वारा दिल्ली की इस संस्था से जुड़े वॉल्टर फर्नांडिस को लिखी गई चिट्ठियों को पाकिस्तानी एजेंसी को भेजी गई चिट्ठियों के रूप में पेश किया। जो अभियोग पक्ष इतना नाजानकार हो, या जानबूझ कर अदालत में ऐसे भ्रम पैदा कर रहा हो, उसकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हो जाती है। वैसे में जागरूक जनमत की अदालत से यह अपेक्षा बेजा नहीं है कि वह अभियोग पक्ष के प्रति सख्त रुख अख्तियार करती।
बहरहाल, यह बात ठीक है कि अदालत ऐसी अपेक्षाओं के मुताबिक चलने के लिए बाध्य नहीं है। लेकिन यह तो उसका दायित्व और संवैधानिक कर्त्तव्य है कि वह ठोस सबूतों के आधार पर और अपराध के अनुपात के मुताबिक फैसला दे। नारायण सान्याल को जिस जेल में रखा गया है, वहां के अधिकारियों ने अपनी गवाही में यह साफ शब्दों में कहा कि विनायक सेन जब भी सान्याल से मिलने आए, उनकी मुलाकात अधिकारियों की कड़ी निगरानी में हुई और इस दौरान चिट्ठियों का कोई आदान-प्रदान नहीं हुआ। अदालत ने इस गवाही पर तो गौर नहीं किया, लेकिन जेल के एक दूसरे कर्मचारी की इस गवाही को बहुत अहम मान लिया कि सेन जब मिलने आए थे, तो उन्होंने सान्याल को अपना रिश्तेदार बताया था। सेन का पक्ष रहा है कि वो पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (छत्तीसगढ़) के महासचिव के रूप में सान्याल से मिलने जाते थे, उनकी सान्याल से कोई रिश्तेदारी नहीं है। क्या सेन जेल में या उसके बाहर जो भी मिलता उसके सामने पीयूसीएल और सान्याल से उसके या अपने पूरे संबंधों की व्याख्या करते हुए सान्याल से मिलने जाते? हालांकि जुबानी बातचीत का कोई सबूत संबंधित कर्मचारी के पास भी नहीं होगा, लेकिन अगर सेन ने किसी से हलके अंदाज में रिश्तेदारी की बात कह भी दी होगी, तो उससे क्या साबित हो जाता है?
अदालत ने इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट को इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस बताने वाले अभियोग पक्ष की साख पर तो कोई सवाल नहीं उठाया, लेकिन विनायक सेन द्वारा नारायण सान्याल को कथित तौर पर अपना रिश्तेदार बताने के आधार पर उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध मान ली। और अनिल कुमार सिंह नाम के एक व्यापारी की गवाही को ठोस सबूत मानते हुए कोर्ट इस निष्कर्ष पहुंच गया कि, “इससे जाहिर होता है कि अभियुक्तों की सोच में समानता थी और इससे ये तथ्य स्थापित होते हैं कि राजद्रोह की साजिश रची गई।” अनिल कुमार सिंह अभियोग पक्ष का अकेला गवाह है, जिसे पीयूष गुहा की गिरफ्तारी के वक्त की बताई गई कहानी को साबित करने के लिए पेश किया गया। सिंह ने गवाही दी कि गुहा से उसके सामने तीन चिट्ठियां बरामद हुईं। गुहा से पुलिस ने पूछा कि उसे ये चिट्ठियां किसने दीं, तो उसने बताया कि विनायक सेन जेल में नारायण सान्याल से मिलते थे और ये चिट्ठियां सान्याल ने उन्हें दी थी। सिंह के मुताबिक उसने गुहा को यह कहते सुना कि सेन ने उसे चिट्ठियां देते हुए उन चिट्ठियों को कोलकाता ले जाने को कहा था।
यहां यह गौरतलब है कि अगर अनिल कुमार सिंह ने गुहा को यह कहते सुना, तब भी यह बयान पुलिस के सामने दिया गया बयान है। जज ने इस संबंध में बचाव पक्ष की इस दलील को कोई तव्वजो नहीं दी कि पुलिस के सामने दिया गया अभियुक्त का कोई बयान कानून के तहत स्वीकार्य नहीं होता। इसके विपरीत उन्होंने अपने फैसले में कहा है कि सिंह गिरफ्तारी के समय मौजूद गवाह है, इसलिए उसका बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत मान्य है। तो कुल मिलाकर इस तरह वह केस बना है, जिसके आधार पर विनायक सेन को उम्र कैद की सजा सुना दी गई है। लेकिन न्यायिक निष्कर्ष तक पहुंचने के कोर्ट के अधिकार-क्षेत्र में बिना कोई दखल दिए यहां यह सवाल जरूर अहम है कि अगर विनायक सेन ने सान्याल की चिट्ठी गुहा तक पहुंचाई भी, तो क्या इस अपराध का अनुपात इतना है कि उन्हें उम्र कैद सुनाई जाए? क्या विनायक सेन पर बम बनाने या किसी की हत्या का आरोप है? या किसी खास हत्या की साजिश में शामिल होने का आऱोप है? अगर सेन का अपराध साबित भी होता है, तो यह अधिक से अधिक एक प्रतिबंधित संगठन से जुड़े दो लोगों के बीच संदेशवाहक बनने का है। क्या इसके लिए अधिकतम सजा विवेक और तर्क की कसौटी पर उचित मानी जा सकती है?
इसी बिंदु पर आकर यह सवाल खड़ा होता है कि रायपुर के जिला एवं सत्र न्यायालय का फैसला ठोस अर्थों में न्यायिक है, या इस पर एक खास तरह की राजनीतिक सोच का असर है? सजा सिर्फ विनायक सेन को दी गई है, या इसके जरिए देश के उन तमाम लोगों और समूहों को संदेश देने की कोशिश है, जो सुरक्षा, सामाजिक स्थिरता और शांति के बारे में तथाकथित मुख्यधारा सोच से सहमत नहीं हैं? और इस रूप में क्या यह फैसला असहमति की आवाज को दबा देने की कोशिशों का हिस्सा नहीं बन जाता है?
माओवादियों की राजनीति निसंदेह अराजक और नकारवादी (निहिलिस्ट) है। राजसत्ता के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर जनतांत्रिक विमर्श के दायरे को संचुकित करने में वे असल में राजसत्ता के सहायक बने हैं। इसके बावजूद गौरतलब यह है कि उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करते रहे हैं कि माओवादियों की देश के एक बड़े हिस्से में मौजूदगी आदिवासियों और अन्य कमजोर तबकों को न्याय से वंचित रखे जाने का परिणाम है। राजसत्ता के सबसे बड़े प्रतिनिधि की अगर यह समझ है, तो क्या यह अपेक्षा रखना उचित और न्यायपूर्ण हो सकता है कि देश के व्यापक लोकतांत्रिक दायरे में सभी लोग माओवादियों को उसी तरह अपराधी औऱ आतंकवादी मानें, जैसाकि देश के शासक वर्ग या दक्षिणपंथी समूहों की मान्यता है? और इस परिप्रक्ष्य में अगर विनायक सेन नारायण सान्याल से मिलते थे और जैसाकि अदालत नतीजे पर पहुंची है कि उन्होंने सान्याल की चिट्ठी उनके किसी सहयोगी तक पहुंचा दी, तो क्या उसके लिए सेन को राजद्रोह की कठोरतम सजा सुना दी जानी चाहिए?
चूंकि यह फैसला अगर अपर्याप्त नहीं, तो कम से कम अधूरे और महज परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर सुनाया गया लगता है और उस आधार पर कठोरतम सजा सुना दी गई है, इसलिए समाज के एक बड़े हिस्से का इस फैसले के पीछे एक किसी राजनीतिक दर्शन की भूमिका देखना संभवतः गलत नहीं है। इस क्रम इस फैसले के संदर्भ में भी कमोबेश वही सवाल उठते हैं, जो अयोध्या विवाद पर पिछले सितंबर में आए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से उठे थे। यह प्रश्न एक बार फिर प्रासंगिक है कि न्यायिक फैसले ठोस सबूतों और उनके वास्तविक संदर्भ के आधार पर होने चाहिए, या आस्था, किसी राजनीतिक दर्शन के प्रभाव या किसी न्यायेतर उद्देश्य की पूर्ति के लिए?
इसलिए यहां सवाल यह नहीं है कि क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता कानून से ऊपर हैं? बहुत से लोगों की इस शिकायत में दम हो सकता है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं या संगठनों का एक हिस्सा एकांगी सोच से चलता है और भारतीय राजसत्ता के स्वरूप एवं भूमिका के प्रति बेहद नकारात्मक नजरिया रखता है। इस बात भी निर्विवाद है कि अगर कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता कानून का उल्लंघन करता है, तो उसे जरूर सजा होनी चाहिए। लेकिन विनायक सेन के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बात यह सवाल या शिकायत नहीं है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर एक जनतांत्रिक, लेकिन वर्गों में बंटे समाज में न्यायपालिका की क्या भूमिका है और उससे कैसी उम्मीदें रखी जानी चाहिए? इस संदर्भ यह सामान्य अपेक्षा है कि न सिर्फ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से संबंधित मामलों, बल्कि हर न्यायिक मामले में, निष्कर्ष तक पहुंचने और सजा की मात्रा तय करने में इंसाफ हुआ जरूर दिखना चाहिए। चूंकि विनायक सेन के मामले में इन दोनों ही पहलुओं पर तार्किकता एवं न्याय के सिद्धांतों का पालन हुआ नहीं दिखता है, इसलिए देश के व्यापक जनतांत्रिक दायरे में इतनी बेचैनी है। अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को साक्ष्य और तर्क पर आस्था को तरजीह देने की मिसाल माना गया था। विनायक सेन के मामले में साक्ष्य एवं तर्क पर एक खास राजनीतिक सोच को तरजीह मिलने का आभास हुआ है। इसीलिए जनतांत्रिक विमर्श में यह सवाल उठ रहा है कि क्या न्यायपालिका का एक हिस्सा लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों पर प्रहार करने में दक्षिणपंथी- सांप्रदायिक समूहों का सहचर बन गया है?
Satyendra Ranjan
D-001, Jansatta Appts., Sec-9,
Vasundhara, Ghaziabad (U.P.). PIN- 201012